महाभारतम्-08-कर्णपर्व-048

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अर्जुनस्य संशप्तकैर्युद्धम्।। 1 ।।

सञ्जय उवाच। 8-48-1x
वर्तमाने तथा युद्धे क्षत्रियाणां निमज्जने।
गाण्डीवस्य महाघोषः श्रूयते युधि मारिष।।
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संशप्तकानामकरोत्कदनं यत्र पाण्डवः।
कोसलानां तथा राजन्नारायणबलस्य च।।
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संशप्तकास्तु समरे शरवृष्टिः समन्ततः।
अपातयन्पार्थमूर्ध्नि जयगृद्धाः प्रमन्यवः।।
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तां शस्त्रवृष्टिमायान्तीमुरसा धारयन्प्रभुः।
व्यगाहत परान्पार्थो विनिघ्नन्रथिनां वरान्।।
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विक्षोभ्य तु रथानीकं कङ्कपत्रैः शिलाशितैः।
आससाद ततः पार्थः सुशर्माणं महारथम्।।
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स तस्य शरवर्षाणि ववर्ष रथिनां वरः।
तथा संशप्तकाश्चैव पार्थस्य समरे स्थिताः।।
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सुशर्मा तु ततः पार्थं विद्ध्वा दशभिराशुगैः।
जनार्दनं त्रिभिर्बाणैरहनद्दक्षिणे भुजे।।
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ततोऽपरेण भल्लेन केतुं पार्थस्य मारिष।
विव्याध समरे राजन्सुशर्मा क्रोधमूर्च्छितः।।
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स वानरवरो राजन्विश्वकर्मकृतो महान्।
ननाद सुमहानादं नृत्यन्निव विभीषयन्।।
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कपेस्तु निनदं श्रुत्वा सन्त्रस्ता तव वाहिनी।
भयं विपुलमासाद्य निश्चेष्टा समपद्यत।।
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ततः सा शुशुभे सेना निश्चेष्टाऽवस्थिता नृप।
नानापुष्पसमाकीर्णं यथा चित्रीकृतं वनम्।।
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प्रतिलभ्य ततः संज्ञां योधास्ते कुरुसत्तम।
अर्जुनं सिषिचुर्बाणैः पर्वतं जलदा इव।।
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सञ्छाद्य समरे पार्थं परिवव्रुः समन्ततः।
ते हयान्रथचक्रे तु रथेषां चापि मारिष।
ग्रहीतुं प्रचक्रमुश्चैव क्रोधाविष्टाः समन्ततः।।
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निगृह्य तु रथं तस्य योधास्ते तु सहस्रशः।
रथबन्धं प्रचक्रुर्हि पाण्डवस्यामितौजसः।।
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रथमारुरुहुः केचित्कृष्णपार्थौ जिघृक्षवः।
संशप्तकानां योधास्ते सिंहनादांश्च नेदिरे।।
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अपरे जगृहुश्चैव केशवस्य महाभुजौ।
पार्थं चैके महाराज रथस्थं जगृहुर्मुदा।।
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अच्युतः स महाबाहुर्विधुन्वन्रणमूर्धनि।
पातयामास तान्सर्वान्दुष्टहस्तीव हस्तिपान्।।
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स रथस्तैर्गृहीतस्तु पाण्डवस्य महात्मनः।
स्पन्दितुं नाशकद्राजंस्तदद्भुतमिवाभवत्।।
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ततः पार्थो महाबाहुः संवृतः स्तैर्महारथैः।
निगृहीतं रथं दृष्ट्वा तांश्चाप्याद्रवतो बहून्।।
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रथारूढांश्च सुबहून्पदाऽऽक्षिप्य न्यपातयत्।
अपातयदसम्भ्रान्तः शरैरासन्नयोधिभिः।।
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तांस्तापयित्वा समरे पार्थः परपुरञ्जयः।
स्मयन्निव महाबाहुः केशवं वाक्यमब्रवीत्।।
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पश्य कृष्ण महाबाहो संशप्तकगणान्बहून्।
कुर्वतोऽसुकरं कर्म मुमूर्षून्कालचोदितान्।।
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रथबन्धमिमं प्राप्य पृथिव्यां नास्ति कश्चन।
यः सहेत पुमाँल्लोके मदन्यः क्षत्रियर्षभः।।
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पश्यैततानद्य समरे मत्प्रयुक्तैः सुतेजनैः।
पात्यमानान्रणे कृष्ण शरैराशीविषोपमैः।।
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इत्येवमुक्त्वा बीभत्सुः शङ्खप्रवरमुत्तमम्।
व्यनादयदमेयात्मा देवदत्तं महामृधे।।
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देवदत्तस्वनं श्रुत्वा केशवोऽपि महायशाः।
पाञ्चजन्यस्वनं चक्रे पूरयन्निव रोदसी।।
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तयोः शङ्खस्वनं श्रुत्वा संशप्तकवरूथिनी।
सञ्चचाल महाराज वित्रस्ता चाद्रवद्भृशम्।।
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नागमस्त्रं ततः पार्थः प्रादुश्चक्रे हसन्निव।
पादबन्धं स तेषां वै चक्रे तेन महास्त्रवित्।।
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यानुद्दिश्य रणे पार्थः पादबन्धं चकार ह।
ते बद्धाः पादबन्धेन योधाः संशप्तकास्तदा।।
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निर्विचेष्टास्तदाऽभूवन्पाण्डवस्यास्त्रतेजसा।
निर्विचेष्टांस्ततो योधानवधीत्पाण्डुनन्दनः।
यथेन्द्रः समरे दैत्यांस्तारकस्य वधे पुरा।।
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ते वध्यमानाः समरे मुमुचुस्तं रथोत्तमम्।
आयुधानि च सर्वाणि विस्रष्टुमुपचक्रमुः।।
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ततः सुशर्मा राजेन्द्र गृहीतां वीक्ष्य वाहिनीम्।
सौपर्णमस्त्रं त्वरितः प्रादुश्चक्रे महारथः।।
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ततः सुपर्णाः सम्पेतुर्भक्षयन्तो भुजङ्गमान्।
ततो विदुद्रुवुर्नागास्तान्दृष्ट्वा खेचरान्नृप।।
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तद्विमुक्तं बलं रेजे पादबन्धाद्विशाम्पते।
मेघबन्धाद्यथा मुक्तो भास्करस्तापयन्प्रजाः।।
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विप्रमुक्ताः स्वका योधाः फल्गुनस्य रथं प्रति।
ससृजुः शरसङ्घांश्च शस्त्रसङ्घांश्च मारिष।।
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तां महास्त्रमयीं वृष्टिं शरैः सञ्छिद्य भारत।
अवधीत्सततो योधान्वासविः परवीरहा।।
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सुशर्मा तु ततो राजन्बाणेन नतपर्वणा।
अर्जुनं हृदये विद्ध्वा विव्याधान्यैस्त्रिसप्तभिः।।
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स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशतत्।
तत उच्चुक्रुशुः सर्वे हतः पार्थ इति ब्रुवन्।।
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ततः शङ्खनिनादाश्च भेरीशब्दाश्च पुष्कलाः।
नानावादित्रनिनदाः सिंहनादाश्च जज्ञिरे।।
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प्रतिलभ्य ततः संज्ञां श्वेताश्वः कृष्णसारथिः।
सोऽतिविद्धो महेष्वासः शरैराशीविपोपमैः।
सुशर्माणं महाराज क्रोधाविष्टो महारथः।।
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ततः शरशतैः पार्थः सञ्छाद्यैनं क्षणाद्रणे।
दिशस्तु वारयामास बाणैस्तत्र महास्त्रवित्।।
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विमुखीकृत्य समरे सुशर्माणं धनञ्जयः।
ऐन्द्रमस्त्रममेयात्मा प्रादुश्चक्रे हसन्निव।।
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ततो बाणसहस्राणि तदुत्सृष्टानि मारिष।
सर्वदिक्षु व्यदृश्यन्त सूदयन्ति रथद्विपान्।।
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हयान्पत्तींश्च समरे शस्त्रैः शतसहस्रशः।
रराज समरे राजञ्शक्रो निघ्नन्निवासुरान्।।
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वध्यमाने ततः सैन्ये भयं सुमहदाविशत्।
संशप्तकगणानां च गोपालानां च भारत।।
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न हि तत्र पुमान्कश्चिद्योऽर्जुनं प्रतिबुध्यते।
पश्यतां तत्र वीराणामहन्यत बलं तव।।
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हन्यमानं च तदभून्निश्चेष्टं च पराक्रमे।। 8-48-47a
अयुतं तत्र योधानां हत्वा पाण्डुसुतो रणे।
व्यभ्राजत महाराज विधूमोऽग्निरिव ज्वलन्।।
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चतुर्दशसहस्राणि यानि दृष्टनि भारत।
रथानामयुतं चैव त्रिसहस्राश्च दन्तिनः।।
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ततः संशप्तका भूयः परिवव्रुर्धनञ्जयम्।
मर्तव्यमिति निश्चित्य जयं वाप्यनिवर्तनम्।।
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तत्र युद्धं महच्चासीत्तावकानां विशाम्पते।
शूरेण बलिना सार्धं पाण्डवेन किरीटिना।
जित्वा तान्न्यहनत्पार्थः शत्रूञ्शक्र इवासुरान्।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि
सप्तदशदिवसयुद्धे अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।। 48 ।।

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