महाभारतम्-08-कर्णपर्व-037
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कर्णेन सोपहासं शल्यगर्हणम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 8-37-1x |
ततः पुनर्महाराज मद्रराजमरिन्दमः। अभ्यभाषत राधेयः सन्निवार्योत्तरं वचः।। | 8-37-1a 8-37-1b |
निर्भर्त्सनार्थं शल्य त्वं यत्तु जल्पितवानसि। नाहं शक्यस्त्वया वाचा विभीषयितुमाहवे।। | 8-37-2a 8-37-2b |
यदि मां देवताः सर्वा योधयेयुः सवासवाः। तथापि मे भयं न स्यात्किमु पार्थात्सकेशवात्।। | 8-37-3a 8-37-3b |
नाहं भीषयितुं शक्यः शुद्धकर्णा महाहवे। अभिजानीहि शक्तस्त्वमन्यं भीषयितुं रणे।। | 8-37-4a 8-37-4b |
नीचस्य बलमेतावत्पारुष्यं यतत्त्वमात्थ माम्। अशक्तो हि गुणान्वक्तुं वल्गसे बहु दुर्मते।। | 8-37-5a 8-37-5b |
न हि कर्णः समुद्भूतो भयार्थमिह मद्रक। विक्रमार्थमहं जातो यशोर्थं च तथाऽऽत्मनः।। | 8-37-6a 8-37-6b |
सखिभावेन सौहार्दान्मितत्रभावेन चैव हि। कारणैस्त्रिभिरेतैस्त्वं शल्य जीवसि साम्प्रतम्।। | 8-37-7a 8-37-7b |
राज्ञश्च धार्तराष्ट्रस्य कार्यं सुमहदुद्यतम्। मयि तच्चाहितं शल्य तेन जीवसि मे क्षणम्।। | 8-37-8a 8-37-8b |
कृतश्च समयः पूर्वं क्षन्तव्यं विप्रियं तव। `समयः परिपाल्यो मे तेन जीवसि साम्प्रतम्'।। | 8-37-9a 8-37-9b |
ऋते शल्यसहस्रेण विजयेयमहं परान्। मित्रद्रोहस्तु पापीयानिति जीवसि साम्प्रतम्।। | 8-37-10a 8-37-10b |
शल्य उवाच। | 8-37-11x |
आर्तप्रलापांस्त्वं कर्ण यान्ब्रवीषि परान्प्रति। न ते कर्णसहस्रेण शक्या जेतुं परे युधि।। | 8-37-11a 8-37-11b |
सञ्जय उवाच। | 8-37-12x |
तथा ब्रुवन्तं परुषं कर्णो मद्राधिपं तदा। परुषं द्विगुणं भूयः प्रोवाचाप्रियदर्शनम्।। | 8-37-12a 8-37-12b |
इदं त्वमेकाग्रमनाः शृणु मद्रजनाधिप। सन्निधौ धृतराष्ट्रस्य प्रोच्यमानं मया श्रुतम्।। | 8-37-13a 8-37-13b |
देशांश्च विविधांश्चित्रान्पूर्ववृत्तांश्च पार्थिवान्। ब्राह्मणाः कथयन्ति स्म धृतराष्ट्रनिवेशने।। | 8-37-14a 8-37-14b |
तत्र वृद्धः पुरावृत्ताः कथाः कश्चिद्द्विजोत्तमः। बाह्लीकदेशं मद्रांश्च कुत्सयन्वाक्यमब्रवीत्।। | 8-37-15a 8-37-15b |
बहिष्कृता हिमवतता गङ्गया च तिरस्कृताः। सरस्वत्या यमुनया कुरुक्षेत्रेण चापि ये।। | 8-37-16a 8-37-16b |
पञ्चानां सिन्धुषष्ठानां नदीनां येऽन्तराश्रिताः। तान्धर्मबाह्यानशुचीन्बाह्लीकानपि वर्जयेत्।। | 8-37-17a 8-37-17b |
गोवर्धनो नाम वटः सुभाण्डं नाम पत्तनम्। एतद्राजन्कलिद्वारमाकुमारात्स्मराम्यहम्।। | 8-37-18a 8-37-18b |
कार्येणात्यर्थगूढेन बाह्लीकेषूषितं मया। तत एषां समाचारः संवासाद्विदितो मया।। | 8-37-19a 8-37-19b |
शाकलं नाम नगरमापगानामनिम्नगा। चण्डाला नाम बाह्लीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम्।। | 8-37-20a 8-37-20b |
पानं गुडासवं पीत्वा गोमांसं लशुनैः सह। अपूपसक्तुमद्यानामाशिताः शीलवर्जिताः।। | 8-37-21a 8-37-21b |
गायन्त्यथ च नृत्यन्ति स्त्रियो मत्ता विवाससः। नगरापणवेशेषु बहिर्माल्यानुलेपनाः।। | 8-37-22a 8-37-22b |
मत्ताः प्रगीतविरुतैः खरोष्ट्रनिनदोपमैः। अनावृता मैथुने ताः कामचाराश्च सर्वशः।। | 8-37-23a 8-37-23b |
आहुरन्योन्यसूक्तानि प्रब्रुवाणा मदोत्कxxxः। हेहतेहेहतेत्येवं स्वामिभर्तृहतेति च।। | 8-37-24a 8-37-24b |
आक्रोशन्त्यः प्रनृत्यन्ति व्रात्याः पर्वस्वसंयताः। तासां किलावलिप्तानां निवसन्कुरुजाङ्गले।। | 8-37-25a 8-37-25b |
कश्चिद्बाह्लीकदुष्टानां नातिहृष्टमना जगौ। सा नूनं बृहती गौरी सूक्ष्मकम्बलवासिनी।। | 8-37-26a 8-37-26b |
मामनुस्मरती शेते बाह्लीकं कुरुवासिनम्। शतद्रुं नु कदा तीर्त्वा तां च रम्यामिरावतीम्। गत्वा स्वदेशं द्रक्ष्यामि स्थूलजङ्घाः शुभाः स्त्रियः।। | 8-37-27a 8-37-27b 8-37-27c |
मनःशिलोज्ज्वलापाङ्ग्यो गौर्यस्ताः काकुकूजिताः। कम्बलाजिनसंवीता रुदन्त्यः प्रियदर्शनाः।। | 8-37-28a 8-37-28b |
मृदङ्गानकशङ्खानां मर्दलानां च निःस्वनैः। खरोष्ट्राश्वतरैश्चैव मत्ता यास्यामहे सुखम्।। | 8-37-29a 8-37-29b |
शमीपीलुकरीराणां वनेषु सुखवर्त्मसु। अपूपान्सक्तुपिण्डांश्च प्राश्नन्तो मथितान्वितान्।। | 8-37-30a 8-37-30b |
पथिषु प्रबलो भूत्वा तथा सम्पततोऽध्वगान्। चेलापहारं कुर्वाणास्ताडयिष्याम भूयसः।। | 8-37-31a 8-37-31b |
एवंशीलेषु व्रात्येषु बाह्लीकेषु दुरात्मसु। कश्चेतयानो निवसेन्मुहूर्तमपि मानवः।। | 8-37-32a 8-37-32b |
कर्ण उवाच। | 8-37-33x |
ईदृशा ब्राह्मणेनोक्ता बाह्लीका मोघचारिणः। येषां षड्भागहर्ता त्वमुभयोः पुण्यपापयोः।। | 8-37-33a 8-37-33b |
इत्युक्त्वा ब्राह्मणः साधुरुत्तरं पुनरुक्तवान्। बाह्लीकेष्वविनीतेषु प्रोच्यमानं निबोध तत्।। | 8-37-34a 8-37-34b |
ततत्र स्म राक्षसी गाति कृष्णचतुर्दशीम्। नगरे शाकले स्फीते आहत्य निशि दुन्दुभिम्।। | 8-37-35a 8-37-35b |
कथं वस्तादृशो गाथाः पुनर्गास्यामि शाकले। गव्यस्य तृप्ता मांसस्य पीत्वा गौडं सुरासवम्।। | 8-37-36a 8-37-36b |
गौरीभिः सह नारीभिर्बृहतीभिः स्वलङ्कृता। पलाण्डुगण्डूषयुताः खादन्तश्चेशिकान्बहून्।। | 8-37-37a 8-37-37b |
वाराहं कौक्कुटं मांसं गव्यं गार्दभमौष्ट्रकम्। धानाश्च ये न खादन्ति तेषां जन्म निरर्थकम्।। | 8-37-38a 8-37-38b |
एवं गायन्ति ये मत्ताः शीधुना पीलुकावने। सबालवृद्धाः क्रन्दन्ति तेषां धर्मः कथं भवेत्।। | 8-37-39a 8-37-39b |
यत्र लोकेश्वरः कृष्णो देवदेवो जनार्दनः। विस्मृतः पुरुषैरुग्रैस्तेषां धर्मः कथं भवेत्।। | 8-37-40a 8-37-40b |
इति शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते। यदन्योप्युक्तवानस्मान्ब्राह्मणः कुरुसंसदि।। | 8-37-41a 8-37-41b |
पञ्चनद्यो वहन्त्येता यत्र पीलुवनान्युत। शतद्रुश्च विपाशा च तृतीयैरावती तथा।। | 8-37-42a 8-37-42b |
चन्द्रभागा वितस्ता च सिन्धुषष्ठा महानदी। आरट्टा नाम बह्लीका एतेष्वार्यो हि नो वसेत्।। | 8-37-43a 8-37-43b |
व्रात्यानां दासमीयानां विदेहानामयज्वनाम्। न देवाः प्रतिगृह्णन्ति पितरो ब्राह्मणास्तथा।। | 8-37-44a 8-37-44b |
तेषां प्रनष्टधर्माणां बाह्लीकानामिति श्रुतिः। ब्राह्मणेन यथा प्रोक्तं विदुषा साधुसंसदि।। | 8-37-45a 8-37-45b |
काष्ठकुण्डेषु बाह्लीका मृण्मयेषु च भुञ्जते। सक्तुमद्यावलिप्तेषु श्वावलीढेषु निर्घृणाः।। | 8-37-46a 8-37-46b |
आविकं चौष्ट्रिकं चैव क्षीरं गार्दभमेव च। तद्विकारांश्च बाह्लीकाः खादन्ति च पिबन्ति च।। | 8-37-47a 8-37-47b |
पात्रसङ्करिणो जाल्माः सर्वान्नक्षीरभोजनाः। आरट्टा नाम बाह्लीका वर्जनीया विपश्चिता।। | 8-37-48a 8-37-48b |
इति शल्य विजानीहि हन्त भूयो ब्रवीमि ते। यदन्योऽप्युक्तवान्मह्यं ब्राह्मणः कुरुसंसदि।। | 8-37-49a 8-37-49b |
युगन्धरे पयः पीत्वा प्रोष्य चाप्यच्युतस्थले। तद्वद्भूतिलये स्नात्वा कथं स्वर्गं गमिष्यति।। | 8-37-50a 8-37-50b |
पञ्चनद्यो वहन्त्येता यत्र निःसृत्य पर्वतात्। आरट्टा नाम बाह्लीका न तेष्वार्यो द्व्यहं वसेत्।। | 8-37-51a 8-37-51b |
बाह्लीका नाम हीकश्च विपाशायां पिशाचकौ। तयोरपत्यं बाह्लीका नैषा सृष्टिः प्रजापतेः।। | 8-37-52a 8-37-52b |
ते कथं विविधान्धर्माञ्ज्ञास्यन्ते हीनयोनयः।। | 8-37-53a |
कारस्करान्माहिषकान्करम्भान्कटकालिकान्। कर्करान्वीरकान्वीरा उन्मत्तांश्च विवर्जयेत्।। | 8-37-54a 8-37-54b |
इति तीर्थानुसञ्चारी राक्षसी काचिदब्रवीत्। एकरात्रमुषित्वेह महोलूखलमेखला।। | 8-37-55a 8-37-55b |
आरट्टा नाम ते देशा बाह्लीकं नाम तद्वनम्। वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायोऽतिकुत्सिताः।। | 8-37-56a 8-37-56b |
।। इति श्रीमन्महाभारते कर्णपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः।। 37 ।। |
8-37-8 एतदेव त्रयं व्याचष्टे राज्ञश्चेत्यादिना।। 8-37-17 पञ्चानां वक्ष्यमाणानाम्। सिन्धुः षष्ठी यासाम्। अन्तरमवकाशमाश्रिताः।। 8-37-18 गोवर्धनः गवां छेदनस्थानम्।। 8-37-20 वृत्तं चरित्रम्।। 8-37-23 अनावृताः स्वपरपुरुषविवेकहीनाः।। 8-37-24 सूक्तानि विनोदवचनानि। हेहते भोलिङ्गताडिते xxxक्रोशे द्वित्वम्। संधिश्छान्दसः। स्वामिहते भर्तृहते इति च तद्वत्।। 8-37-25 पर्वसु उत्सवदिनेषु आक्रोशन्त्यः गालयन्त्यः। तासां पतिरिति शेषः।। 8-37-29 खरादियानैः।। 8-37-30 मथितं तक्रम्।। 8-37-31 भूयसः बहून्।। 8-37-38 वाराहं विड्वाहजम।। 8-37-37 सप्तत्रिंशोऽध्यायः।। Template:Footer