महाभारतम्-09-शल्यपर्व-031
युधिष्ठिरेण हदस्थं दुर्योधनं प्रति निष्ठुरोक्तिभिः सन्तर्जनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिरदुर्योधनयोः संवादः।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 9-31-1x |
ततस्तेष्वपयातेषु रथेषु त्रिषु पाण्डवाः। तं हदं प्रत्यपद्यन्त यत्र दुर्योधनोऽभवत्।। | 9-31-1a 9-31-1b |
आसाद्य च कुरुश्रेष्ठ तदा द्वैपायनं हदम्। स्तम्भितं धार्तराष्ट्रेण दृष्ट्वा तं सलिलाशयम्।। | 9-31-2a 9-31-2b |
वासुदेवमिदं वाक्यमब्रवीत्कुरुनन्दनः। पश्येमां धार्तराष्ट्रेण मायामप्सु प्रयोजिताम्।। | 9-31-3a 9-31-3b |
विष्टभ्य सलिलं शेते नास्य मानुषतो भयम्। दैवीं मायामिमां कृत्वा सलिलान्तर्गतो ह्ययम्।। | 9-31-4a 9-31-4b |
निकृत्या निकृतिप्रज्ञो न मे जीवन्विमोक्ष्यते। यद्यस्य समरे साह्यं कुरुते वज्रभृत्स्वयम्। तथाप्येनं हतं युद्धे लोका द्रक्ष्यन्ति माधव।। | 9-31-5a 9-31-5b 9-31-5c |
वासुदेव उवाच। | 9-31-6x |
मायाविन इमां मायां मायया जहि भारत। मायावी मायया वध्यः सत्यमेतद्युधिष्ठिर।। | 9-31-6a 9-31-6b |
क्रियाभ्युपायैर्बहुभिर्भायामप्सु प्रयोज्य च। जहि त्वं भरतश्रेष्ठ मायात्मानं सुयोधनम्।। | 9-31-7a 9-31-7b |
क्रियाभ्युपायैरिन्द्रेण निहता दैत्यदानवाः। क्रियाभ्युपायैर्बलिभिर्बलिर्बद्धो महात्मना।। | 9-31-8a 9-31-8b |
क्रियाभ्युपायपूर्वं वै हिरण्याक्षो महासुरः। हिरण्यकशिपुश्चैव क्रिययैव निषूदितौ।। | 9-31-9a 9-31-9b |
वृत्रश्च निहतो राजन्क्रिययैव महाबलः। तथा पौलस्त्यतनयो रावणो नाम राक्षसः। रामेण निहतो राजन्सानुबन्धः सहानुगः।। | 9-31-10a 9-31-10b 9-31-10c |
क्रियया योगमास्थाय तथा त्वमपि विक्रम।। | 9-31-11a |
क्रियाभ्युपायैर्निहतौ मया राजन्पुरातनौ। तारकश्च महादैत्यो विप्रचित्तिश्च वीर्यवान्।। | 9-31-12a 9-31-12b |
वातापिरिल्वलश्चैव त्रिशिराश्च तथा विभो। सुन्दोपसुन्दावसुरौ क्रिययैव निषूदितौ।। | 9-31-13a 9-31-13b |
क्रियाभ्युपायैरिन्द्रेण त्रिदिवं भुज्यते विभो। क्रिया बलवती राजन्नान्यत्किंचिद्युधिष्ठिर।। | 9-31-14a 9-31-14b |
दैत्याश्च दानवाश्चैव राक्षसाः पार्थिवास्तथा। क्रियाभ्युपायैर्निहताः क्रियां तस्मात्समाचर।। | 9-31-15a 9-31-15b |
सञ्जय उवाच। | 9-31-16x |
इत्युक्तो वासुदेवेन पाण्डवः संशितव्रतः। जलस्थं तं महाराज तव पुत्रं महाबलम्। अभ्यभाषत कौन्तेयः प्रहसन्निव भारत।। | 9-31-16a 9-31-16b 9-31-16c |
सुयोधन किमर्थोऽयमारम्भोऽप्सु कृतस्त्वया। सर्वं क्षत्रं घातयित्वा स्वकुलं च विशाम्पते।। | 9-31-17a 9-31-17b |
जलाशयं प्रविष्टोऽद्य वाञ्छञ्जीवितमात्मनः। उत्तिष्ठ राजन्युध्यस्व सहास्माभिः सुयोधन।। | 9-31-18a 9-31-18b |
स ते दर्पो नरश्रेष्ठ स च मानः क्व ते गतः। यस्त्वं संस्तभ्य सलिलं भीतो राजन्व्यवस्थितः।। | 9-31-19a 9-31-19b |
सर्वे त्वां शूर इत्येवं जना जल्पन्ति संसदि। व्यर्थं तद्भवतो मन्ये शौर्यं सलिलशायिनः।। | 9-31-20a 9-31-20b |
उत्तिष्ठ राजन्युध्यस्व क्षत्रियोऽसि कुलोद्भवः। कौरवेयो विशेषेण कुलं जन्म च संस्मर।। | 9-31-21a 9-31-21b |
स कथं कौरवे वंशे प्रशंसञ्जन्म चात्मनः। युद्वात्त्रस्ततरस्तोयं प्रविश्य प्रतितिष्ठसि।। | 9-31-22a 9-31-22b |
अयुद्धेन व्यवस्थानं नैष धर्मः सनातनः।। | 9-31-23a |
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यं रणे राजन्पलायनम्। कथं पारमगत्वा हि युद्धे त्वं वै जिजीविषुः।। | 9-31-24a 9-31-24b |
इमान्निपतितान्दृष्ट्वा पुत्रान्भ्रातॄन्पितॄंस्तथा। सम्बन्धिनो वयस्यांश्च मातुलान्बान्धवांस्तथा। घातयित्वा कथं तात हदे तिष्ठति साम्प्रतम्।। | 9-31-25a 9-31-25b 9-31-25c |
शूरमानी न शूरस्त्वं मृषा वदसि भारत। शूरोऽहमिति दुर्बुद्धे सर्वलोकस्य शृण्वतः।। | 9-31-26a 9-31-26b |
न हि शूराः पलायन्ते शत्रून्दृष्ट्वा कथञ्चन। ब्रूहि वा त्वं यया वृत्त्या शूर त्यजसि सङ्गरम्।। | 9-31-27a 9-31-27b |
स त्वमुत्तिष्ठ युध्यस्व विहाय भयमात्मनः। घातयित्वा सर्वसैन्यं भ्रातॄंश्चैव सुयोधन।। | 9-31-28a 9-31-28b |
नेदानीं जीविते बुद्धिः कार्या धर्मचिकीर्षया। क्षत्रधर्ममुपाश्रित्य त्वद्विधेन सुयोधन।। | 9-31-29a 9-31-29b |
यत्तु कर्णमुपाश्रित्य शकुनिं चापि सौबलम्। दुःशासनं च मोहात्त्वमात्मानं नावबुद्धवान्।। | 9-31-30a 9-31-30b |
तत्पापं सुमहत्कृत्वा प्रतियुध्यस्व भारत। कथं हि त्वद्विधो मोहाद्रोचयेत पलायनम्।। | 9-31-31a 9-31-31b |
क्व ते तत्पौरुषं यातं क्व च मानः सुयोधन। क्व च विक्रान्तता याता क्व च विस्फूर्जितं महत्।। | 9-31-32a 9-31-32b |
क्व ते कृतास्त्रता याता किं नु शेषे जलाशये। स त्वमुत्तिष्ठ युध्यस्व क्षत्रधर्मेण भारत।। | 9-31-33a 9-31-33b |
अस्मांस्तु वा पराजित्य प्रशाधि पृथिवीमिमाम्। अथवा निहतोस्माभिर्भूमौ स्वप्स्यसि भारत।। | 9-31-34a 9-31-34b |
एष ते परमो धर्मः सृष्टो धात्रा महात्मना। तं कुरुष्व यथातथ्यं पौरुषे स्व व्यवस्थितः।। | 9-31-35a 9-31-35b |
सञ्जय उवाच। | 9-31-36x |
एवमुक्तो महाराज धर्मपुत्रेण धीमता। सलिलस्थस्तव सुत इदं वचनमब्रवीत्।। | 9-31-36a 9-31-36b |
नैतच्चित्रं महाराज यद्भीः प्राणिनमाविशेत्। न च प्राणभयाद्भीतो व्यपयातोऽस्मि भारत।। | 9-31-37a 9-31-37b |
अरथश्चानिषङ्गी च निहतः पार्ष्णिसारथिः। एकश्चाप्यगणः सङ्ख्ये प्रत्याश्वासमरोचयम्।। | 9-31-38a 9-31-38b |
न प्राणहेतोर्न भयाश्च विषादाद्विशाम्पते। इदमम्भः प्रविष्टोऽस्मि श्रमात्त्विदमनुष्ठितम्।। | 9-31-39a 9-31-39b |
त्वं चाश्वसिहि कौन्तेय ये चाप्यनुगतास्तव। अहमुत्थाय वः सर्वान्प्रतियोत्स्यामि संयुगे।। | 9-31-40a 9-31-40b |
युधिष्ठिर उवाच। | 9-31-41x |
आश्वस्ता एव सर्वे स्म चिरं त्वां मृगयामहे। तदिदानीं समुत्तिष्ठ युध्यस्वेह सुयोधन।। | 9-31-41a 9-31-41b |
हत्वा वा समरे पार्थान्स्फीतं राज्यमवाप्नुहि। निहतो वा रणेऽस्माभिर्वीरलोकमवाप्स्यसि।। | 9-31-42a 9-31-42b |
दुर्योधन उवाच। | 9-31-43x |
यदर्थं राज्यमिच्छामि कुरूणां कुरुनन्दन। त इमे निहताः सर्वे भ्रातरो मे जनेश्वर।। | 9-31-43a 9-31-43b |
क्षीणरत्नां च पृथिवीं हतक्षत्रियपुङ्गवाम्। न ह्युत्सहाम्यहं भोक्तुं विधवामिव योषितम्।। | 9-31-44a 9-31-44b |
अद्यापि त्वहमाशंसे त्वां विजेतुं युधिष्ठिर। भङ्क्त्वा पाञ्चालपाण्डूनामुत्साहं भरतर्षभ।। | 9-31-45a 9-31-45b |
न त्विदानीमहं मन्ये कार्यं युद्धेन कर्हिचित्। द्रोणे कर्णे च संशान्ते निहते च पितामहे।। | 9-31-46a 9-31-46b |
अस्त्विदानीमियं राजन्केवला पृथिवी तव। असहायो हि को राजा राज्यमिच्छेत्प्रशासितुम्।। | 9-31-47a 9-31-47b |
सुहृदस्तादृशान्हत्वा पुत्रान्भ्रातॄन्पितॄनपि। भवद्भिश्च हृते राज्ये को नु जीवेत मादृशः।। | 9-31-48a 9-31-48b |
अहं वनं गमिष्यामि ह्यजिनैः प्रतिवासितः। रतिर्हि नास्ति मे राज्ये हतपक्षस्य भारत।। | 9-31-49a 9-31-49b |
हतबान्धवभूयिष्ठा हताश्वा हतकुञ्जरा। एषा ते पृथिवी राजन्भुङ्क्षैनां विगतज्वरः।। | 9-31-50a 9-31-50b |
वनमेव गमिष्यामि वसानो मृगचर्मणी। न हि मे निर्जनस्यास्ति जीवितेऽद्य स्पृहा विभो।। | 9-31-51a 9-31-51b |
गच्छ त्वं भुङ्क्ष राजेन्द्र पृथिवीं निहतेश्वराम्। हतयोधां नष्टरत्नां शीर्णक्षत्रां यथासुखम्।। | 9-31-52a 9-31-52b |
[सञ्जय उवाच। | 9-31-53x |
दुर्योधनं तव सुतं सलिलस्थं महायशाः। श्रुत्वा तु करुणं वाक्यमभाषत युधिष्ठिरः।।] | 9-31-53a 9-31-53b |
युधिष्ठिर उवाच। | 9-31-54x |
आर्तप्रलापान्मा तात सलिलस्थः प्रभाषथाः। नैतन्मनसि मे राजन्वाशितं शकुनेरिव।। | 9-31-54a 9-31-54b |
यदि वापि समर्थः स्यास्त्वं दानाय सुयोधन। नाहमिच्छेयमवनिं त्वया दत्तां प्रशासितुम्।। | 9-31-55a 9-31-55b |
अधर्मेण न गृह्णीयां त्वया दत्तां महीमिमाम्। न हि धर्मः स्मृतो राजन्क्षत्रियस्य प्रतिग्रहः।। | 9-31-56a 9-31-56b |
त्वया दत्तां न चेच्छेयं पृथिवीमखिलामहम्। त्वां तु युद्धे विनिर्जित्य भोक्ताऽस्मि वसुधामिमाम्।। | 9-31-57a 9-31-57b |
अनीश्वरश्च पृथिवीं कथं त्वं दातुमिच्छसि। त्वयेयं पृथिवी राजन्किं न दत्ता तदैव हि।। | 9-31-58a 9-31-58b |
धर्मतो याचमानानां प्रशमार्थं कुलस्य नः। वार्ष्णेयं प्रथमं राजन्प्रत्याख्याय महाबालम्।। | 9-31-59a 9-31-59b |
किमिदानीं ददासि त्वं को हि ते जित्तविभ्रमः। अभियुक्तस्तु को राजा दातुमिच्छेद्धि मेदिनीं।। | 9-31-60a 9-31-60b |
न त्वमद्य महीं दातुमीशः कौरवनन्दन। आच्छेत्तुं वा बलाद्राजन्स कथं दातुमिच्छसि।। | 9-31-61a 9-31-61b |
मां तु निर्जित्य सङ्ग्रामे पालयेमां वसुन्धराम्। सूच्यग्रेणापि यद्भूमेरपि भिद्येत भारत।। | 9-31-62a 9-31-62b |
तन्मात्रमपि तन्मह्यं न ददाति पुरा भवान्। स कथं पृथिवीमेतां प्रददासि विशाम्पते।। | 9-31-63a 9-31-63b |
सूच्यग्रं नात्यजः पूर्वं स कथं त्यजसि क्षितिम्।। | 9-31-64a |
एवमैश्वर्यमासाद्य प्रशास्य पृथिवीमिमाम्। को हि मूढो व्यवस्येत शत्रोर्दातुं वसुन्धराम्।। | 9-31-65a 9-31-65b |
त्वं तु केवलमौर्ख्येण विमूढो नावबुध्यसे। पृथिवीं दातुकामोऽपि जीवंस्त्वं नैव मोक्ष्यसे।। | 9-31-66a 9-31-66b |
अस्मान्वा त्वं पराजित्य प्रशाधि पृथिवीमिमाम्। अथवा निहतोऽस्माभिर्व्रज लोकाननुत्तमान्।। | 9-31-67a 9-31-67b |
आवयोर्जीवतो राजन्मयि च त्वयि च ध्रुवम्। संशयः सर्वभूतानां विजये नौ भविष्यति।। | 9-31-68a 9-31-68b |
जीवितं त्वयि दुष्प्रापं मयि यत्परिवर्तते। जीवयेयमहं कामं न तु त्वं जीवितुं क्षमः।। | 9-31-69a 9-31-69b |
दहने हि कृतो यत्नस्त्वयाऽस्मासु विशेषतः। आशीविषैर्विषैश्चापि जले जापि प्रवेशनैः। त्वया विनिकृता राजन्राज्यस्य हरणेन च।। | 9-31-70a 9-31-70b 9-31-70c |
अप्रियाणां च वचनैर्द्रौपद्याः कर्षणेन च। एतस्मात्कारणात्पाप जीवितं न विद्यते।। | 9-31-71a 9-31-71b |
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ युध्यस्व युद्धे श्रेयो भविष्यति।। | 9-31-72a |
एवं तु विविधा वाचो जययुक्ताः पुनःपुनः। कीर्तयन्ति स्म ते वीरास्तत्रतत्र जनाधिप।। | 9-31-73a 9-31-73b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि ह्रदप्रवेशपर्वणि अष्टादशदिवसयुद्धे एकत्रिंशोऽध्यायः।। 31 ।। |
9-31-7 कियाभ्युपायैः शत्रुकियानुरूपैः प्रतीकारैर्घर्म्यैरधर्म्यैर्वेत्यर्थः। एतेतु च्छलकारिणश्छलैरेव हन्तव्या इति भावः। माययैव सुयोधनं इति क.पाठः।। 9-31-11 विक्रम विक्रमं कुरुष्व क्रियया योगमास्थाय हतस्त्वाष्ट्रोऽपि विक्रमात् इति क.पाठः।। 9-31-12 क्रियाभ्युपायैर्निहतो मयो नाम महासरः। इति क.पाठः।। 9-31-27 हे शूरेति साधिक्षेपसम्बोधनम्। यया वृत्त्या निमित्तभूतया। वानप्रस्थत्वेन वा न्यस्तशस्त्रत्वेन वा क्लीबत्वेन वा त्वं सङ्गरं त्यजसि तां वृत्तिं ब्रूहि। न त्वं वानप्रस्थोऽसि राज्यार्थिवात्। नापि न्यस्तशस्त्रो गदाधारित्वात्। परिशेषात क्लीबोऽस्मीति मा भाषस्व। युद्धं कुर्विति भावः।। 9-31-32 पौरुषं यत्नः। विक्रान्तता शौर्यम्। विस्फूर्जितं गर्जनम्।। 9-31-49 हतापत्यस्य भारत इति क.पाठः।। 9-31-52 निहतत्विषमिति क.ङ.पाठः।। 9-31-31 एकत्रिंशोऽध्यायः।। Template:Footer