महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-042

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स़ञ्जयेन धृतराष्ट्रं प्रति अभिमन्युमनुगतानां जयद्गथेन निरोधकथनम्।। 1 ।। तथा जयद्गथस्य रुद्रात् पाण्डवनिरोधरूपवरलाभकथनम्।। 2 ।।

धृतराष्ट्र उवाच। 5-42-1x
बालमत्यन्तसुखिनं स्वबाहुबलदर्पितम्।
युद्धेष्वकुशलं वीरं कुलपुत्रं तनुत्यजम्।।
5-42-1a
5-42-1b
गाहमानमनीकानि सदश्वैश्च त्रिहायनैः।
अपि यौधिष्ठिरात्सैन्यात्कश्चिदन्वपतद्बली।।
5-42-2a
5-42-2b
सञ्जय उवाच। 5-42-3x
युधिष्ठिरो भीमसेनः शिखण्डी सात्यकिर्यमौ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च द्रुपदश्च सङ्केकयः।।
5-42-3a
5-42-3b
धृष्टकेतुश्च संरब्धो मात्स्याश्चाभ्यपतन्रणे।
तेनैव तु पथा यान्तः पितरो मातुलैः सह।।
5-42-4a
5-42-4b
अभ्यद्रवन्परीप्सन्तो व्यूढानीकाः प्रहारिणः।
तान्दृष्ट्वा द्रवतः शूरांस्त्वदीया विमुखाऽभवन्।।
5-42-5a
5-42-5b
ततस्तद्विमुखं दृष्ट्वा तव सूनोर्महद्बलम्।
जामाता तव तेजस्वी संस्तम्भयिषुराद्रवत्।।
5-42-6a
5-42-6b
सैन्धवस्य महाराज पुत्रो राजा जयद्रथः।
स पुत्रगृद्धिनः पार्थान्सहसैन्यानवारयत्।।
5-42-7a
5-42-7b
उग्रधन्वा महेष्वासो दिव्यमस्त्रमुदीरयन्।
वार्धक्षत्रिरुपासेधत्प्रवणादिव कुञ्जरः।।
5-42-8a
5-42-8b
धृतराष्ट्र उवाच। 5-42-9x
कतिभारमहं मन्ये सैन्धवे सञ्जयाहितम्।
यदेकः पाण्डवान्क्रुद्धान्पुप्रेप्सूनवारयत्।।
5-42-9a
5-42-9b
अत्यद्भुतमहं मन्ये बलं शौर्यं च सैन्धवे।
तस्य प्रब्रूहि मे वीर्यं कर्म चाग्र्यं महात्मनः।।
5-42-10a
5-42-10b
किं जप्तं हुतमिष्टं वा किं सुतप्तमथो तपः।
`दमो वा ब्रह्मचर्यं वा सूत यच्चास्य सत्तम।।
5-42-11a
5-42-11b
देवं कतममाराध्य विष्णुमीशानमब्जजम्।
सिन्धुराट् तनये सक्तान्क्रुद्धान्पार्थानवारयत्।।
5-42-12a
5-42-12b
नैवं कृतं महत्कर्म भीष्मेणाज्ञासिषं तथा'।
सिन्धुराजो हि येनैकः पाण्डवान्समवारयत्।।
5-42-13a
5-42-13b
सञ्जय उवाच। 5-42-14x
द्वीपदीहरणे यत्तद्भीमसेनेन निर्जितः।
मानात्स तप्तवान्राजा वरार्थी सुमहत्तपः।।
5-42-14a
5-42-14b
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः प्रियेभ्यः सन्निवर्त्य सः।
क्षुत्पिपासातकपसहः कृशो धमनिसन्ततः।।
5-42-15a
5-42-15b
देवमाराधयच्छर्वं गृणन्ब्रह्म सनातनम्।
भक्तानुकम्पी भगवांस्तस्य चक्रे ततो दयाम्।।
5-42-16a
5-42-16b
स्वप्नान्तेऽप्यथ चैवाह हरः सिन्धुपतेः सुतम्।
वरं वृणीष्व प्रीतोऽस्मि जयद्रथ किमिच्छसि।।
5-42-17a
5-42-17b
एवमुक्तस्तु शर्वेण सिन्धुराजो जयद्रथः।
उवाच प्रणतो रुद्रं प्राञ्जलिर्नियतात्मवान्।।
5-42-18a
5-42-18b
पाण्डवेयानहं सङ्ख्ये भीमवीर्यपराक्रमान्।
वारयेयं रथेनैकः समस्तानिति भारत।।
5-42-19a
5-42-19b
एवमुक्तस्तु देवेशो जयद्रथमथाब्रवीत्।
ददामि ते वरं सौम्य विना पार्थं धनञ्जयम्।
वारयिष्यसि सङ्ग्रामे चतुरः पाण्डुनन्दनान्।।
5-42-20a
5-42-20b
5-42-20c
`एकाहमिति राजेन्द्र तत्रैवान्तरधीयत'।
एवमस्त्विति देवेशमुक्त्वाबुद्ध्यत पार्थिवः।।
5-42-21a
5-42-21b
स तेन वरदानेन दिव्येनास्त्बलेन च।
एकः संवारयामास पाण्डवानामनीकिनीम्।।
5-42-22a
5-42-22b
तस्य ज्यातलघोषेण क्षत्रियान्भयमाविशत्।
परांस्तु तव सैन्यस्य हर्षः परमकोऽभवत्।।
5-42-23a
5-42-23b
दृष्ट्वा तु क्षत्रिया भारं सैन्धवे सर्वमाहितम्।
उत्क्रुश्याभ्यद्रवन्राजन्येन यौधिष्ठिरं बलम्।।
5-42-24a
5-42-24b
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि
त्रयोदशदिवसयुद्धे द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।। 42 ।।

5-42-8 प्रवणान्निम्नप्रदेशं प्नाप्य।। 5-42-10 बलं सामर्थ्यम्। शौर्यमुत्साहः वीर्यं प्रभावम्।। 5-42-42 द्विचत्वारिंशोऽध्यायः।। Template:Footer

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