महाभारतम्-09-शल्यपर्व-047

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कुमारमातृगणस्य नामकीर्तनम्।। 1 ।। कुमारेण तारकासुरवधः क्रौञ्चपर्वतभेदनं च।। 2 ।।

वैशम्पायन उवाच। 9-47-1x
शृणु मातृगणान्राजन्कुमारानुचरानिमान्।
कीर्त्यमानान्मया वीर सपत्नगणसूदनान्।।
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यशस्विनीनां मातॄणां शृणु नामानि भारत
याभिर्वायप्तास्त्रयोलोकाः कल्याणीभिश्च भागशः।।
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प्रभावती विशालाक्षी पालिता गोस्तानी तथा।
श्रीमती बहुला चैव तथैव बहुपुत्रिका।।
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अप्सुजाता च गोपाली बृहदम्बालिका तथा।
जयावती मालतिका ध्रुवरत्ना भयङ्करी।।
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वसुदामा च दामा च विशोका नन्दिनी तथा।
एकचूडा महाचूडा चक्रनेमिश्च भारत।।
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उत्तेजनी जयत्सेना कमलाक्ष्यथ शोभना।
शत्रुञ्जया तथा चैव क्रोधना शलभी खरी।।
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माधवी शुभवक्त्रा च तीर्थसेनिश्च भारत।
गीतप्रिया च कल्याणी रुद्ररोमाऽमिताशना।।
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मेघस्वना भोगवती सुभ्रूश्च कनकावती।
अलाताक्षी वीर्यवती विद्युज्जिह्वा च भारत।।
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पुन्नावती सुनक्षत्रा कन्दरा बहुयोजना।
सन्तानिका च कौरव्य कमला च महाबला।।
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सुदामा बहुदामा च सुप्रभा च यशस्विनी।
नृत्यप्रिया च राजेन्द्र शतोलूखलमेखला।।
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शतघण्टा शतानन्दा भगनन्दा च भाविनी।
वपुष्मती चन्द्रशीता भद्रकाली च भारत।।
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ऋक्षाम्बिका निष्कुटिका वामा चत्वरवासिनी।
सुमङ्गला स्वस्तिमती बुद्धिकामा जयप्रिया।।
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धनदा सुप्रसादा च भवदा च जलेश्वरी।
एडी भेडी समेडी च वेतालजननी तथा।।
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कण्डूतिः कालिका चैव देवमित्रा च भारत।
वसुश्रीः कोटरा चैव चित्रसेना तथाऽचला।।
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कुक्कुटिका शङ्खलिका तथा शकुनिका नृप।
कुण्डारिका कौकुलिका कुम्भिकाऽथ शतोदरी।।
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उत्क्राथिनी जलेला च महावेगा च कङ्कणा।
मनोजवा कण्टकिनी प्रघसा पूतना तथा।।
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केशयन्त्री त्रुटिर्वामा क्रोशनाऽथ तडित्प्रभा।
मन्दोदरी च मुण्डी च कोटरा मेघवाहिनी।।
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सुभगा लम्बिनी लम्बा ताम्रचूडा विकाशिनी।
ऊर्ध्ववेणीधरा चैव पिङ्गाक्षी लोहमेखला।।
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पृथुवस्त्रा मधुलिका मधुकुम्भा तथैव च।
पक्षालिका मत्कुलिका जरायुर्जर्जरानना।।
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ख्याता दहदहा चैव तथा धमधमा नृप।
खण्डखण्डा च राजेन्द्र पूषणा मणिकुट्टिका।।
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अमोघा चैव कौरव्य तथा लम्बपयोधरा।
वेणुवीणाधरा चैव पिङ्गाक्षी लोहमेखला।।
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शशोकूलमुखी कृष्णा खरजङ्घा महाजवा।
शिशुमारमुखी श्वेता लोहिताक्षी विभीषणा।।
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जटालिका कामचरी दीर्घजिह्वा बलोत्कटा।
कालेहिका वामनिका मुकुटा चैव भारत।।
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लोहिताक्षी महाकाया हरिपिण्डा च भूमिप।
एकत्वचा सुकुसुमा कृष्णकर्णी च भारत।।
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क्षुरकर्णी चतुष्कर्णी कर्णप्रावरणा तथा।
चतुष्पथनिकेता च गोकर्णी महिषानना।।
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खरकर्णी महाकर्णी भेरीस्वनमहास्वना।
शङ्खकुम्भश्रवाश्चैव भगदा च महाबला।।
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गणा च सुगणा चैव तथा भीत्यथ कामदा।
चतुष्पथरता चैव भूतितीर्थान्यगोचरी।।
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पशुदा वित्तदा चैव सुखदा च महायशाः।
पयोदा गोमहिषदा सविशाला च भारत।।
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प्रतिष्ठा सुप्रतिष्ठा च रोचमाना सुरोचना।
नौकर्णी मुखकर्णी च विशिरा मन्थिनी तथा।।
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एकचन्द्रा मेघकर्णा मेघमाला विरोचना।
एताश्चान्याश्च बहवो मातरो भरतर्षभ।।
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कार्तिकेयानुयायिन्यो नानारूपाः सहस्रशः।
दीर्घनख्यो दीर्घदन्त्यो दीर्घतुण्ड्श्च भारत।।
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सबला मधुराश्चैव यौवनस्थाः स्वलङ्कृताः।
माहात्म्येन च संयुक्ताः कामरूपधरास्तथा।।
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निर्मासगात्र्यः श्वेताश्च तथा काञ्चनसन्निभाः।
कृष्णमेघनिभाश्चान्या धूम्नाश्च भरतर्षभ।।
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अरुणाभा महाभोगा दीर्घकेश्यः सिताम्बराः।
ऊर्ध्ववेणीधराश्चैव पिङ्गाक्ष्यो लम्बमेखलाः।।
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लम्बोदर्यो लम्बकर्णास्तथा लम्बपयोधराः।
ताम्राक्ष्यस्ताम्रवर्णाश्च हर्यक्ष्यश्च तथाऽपराः।।
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वरदाः कामचारिण्यो नित्यं प्रमुदितास्तथा।
याम्या रौद्रास्तथा सौम्याः कौबेर्योऽथ महाबलाः।।
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वारुण्योऽथ च माहेन्द्यस्तथाऽऽग्नेय्यः परन्तप।
वायव्यश्चाथ कौमार्यो ब्राह्मश्च भरतर्षभ।।
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वैष्णव्यश्च तथा सौर्यो वाराह्यश्च महाबलाः।
रूपेणाप्सरसां तुल्या मनोहार्यो मनोरमाः।।
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परपुष्टोपमा वाक्ये तथर्द्ध्या धनदोपमाः।
शक्रवीर्योपमा युद्धे दीप्ता वह्निसमास्तथा।।
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शत्रुणां विग्रहे नित्यं भयदास्ता भवन्त्युत।
कामरूपधराश्चैव जवे वायुसमास्तथा।।
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अचिन्त्यबलवीर्याश्च तथाऽचिन्त्यपराक्रमाः।
वृक्षचत्वरवासिन्यश्चतुष्पथनिकेतनाः।।
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गुहाश्मशानवासिन्यः शैलप्रस्रवणालयाः।
नानाभरणधारिण्यो नानामाल्याम्बरास्तथा।।
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नानाविचित्रवेषाश्च नानाभाषास्तथैव च।
एते चान्ये च मातॄणां गणाः शत्रुभयङ्कराः।।
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अनुजग्मुर्महात्मानं त्रिदशेन्द्रस्य सम्मते।
ततः शक्त्यस्त्रमददद्भगवान्पाकशासनः।।
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गुहाय राजशार्दूल विनाशाय सुरद्विषाम्।
महास्वनां महाघण्टां द्योतमानां सितप्रभाम्।।
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अरुणादित्यवर्णां च पताकां भरतर्षभ।
ददौ पशुपतिस्तस्मै सर्वभूतमहाचमूम्।।
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उग्रां नानाप्रहरणां तपोवीर्यबलान्विताम्।
अजेयां स्वगणैर्युक्तां नाम्ना सेनां धनञ्जयाम्।।
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रुद्रतुल्यबलैर्युक्तां योधानामयुतैस्त्रिभिः।
न सा विजानाति रणात्कदाचिद्विनिवर्तितुम्।।
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विष्णुर्ददौ वैजयन्तीं मालां बलविवर्धिनीम्।
उमा ददौ विरजसी वाससी रविसप्रभे।।
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गङ्गा कमण्डलुं दिव्यममृतोद्भवमुत्तमम्।
ददौ प्रीत्या कुमाराय दण्डं चैव बृहस्पतिः।।
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गरुडो दयितं पुत्रं मयरं चित्रबर्हिणम्।
अरुणस्ताम्रचूडं च प्रददौ चरणायुधम्।।
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छागं तु वरुणो राजा बलवीर्यसमन्वितम्।
कृष्णाजिनं ततो ब्रह्मा ब्रह्मण्याय ददौ प्रभुः।
समरेषु जयं चैव प्रददौ लोकभावनः।।
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सैनापत्यमनुप्राप्य स्कन्दो देवगणस्य ह।
शुशुभे ज्वलितोर्चिष्मान्द्वितीय इव पावकः।।
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ततः पारिषदैश्चैव मातृभिश्च समन्वितः।
ययौ देत्यविनाशाय ह्लादयन्सुरपुङ्गवान्।।
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सा सेना नैर्ऋती भीमा सघण्टोच्छ्रितकेतना।
सभेरीशङ्खमुरजा सायुधा सपताकिनी।।
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शारदी द्यौरिवाभाति ज्योतिर्भिरिव शोभिता।। 9-47-56a
ततो देवनिकायास्ते नानाभूतगणास्तथा।
वादयामासुरव्याग्रा भेरीः शङ्खांश्च पुष्कलान्।।
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पटहान्झर्झरांश्चैव क्रकचान्गोविषाणिकान्।
आडम्बरान्गोमुखांश्च डिण्डिमांश्च महास्वनान्।।
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तुष्टुवुस्ते कुमारं तु सर्वे देवाः सवासवाः।
जगुश्च देवगन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः।।
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ततः प्रीतो महासेनस्त्रिदशेभ्यो वरं ददौ।
रिपून्दन्ताऽस्मि समरे ये वो वधचिकीर्षवः।।
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प्रतिगृह्य वरं देवास्तस्माद्विबुधसत्तमात्।
प्रीतात्मानो महात्मानो मेनिरे निहतान्रिपून्।।
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सर्वेषां भूतसङ्घानां हर्षान्नादः समुत्थितः।
अपूरयत लोकांस्त्रीन्वरे दत्ते महात्मना।।
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स निर्ययौ महासेनो महत्या सेनया वृतः।
वधाय युधि दैत्यानां रक्षार्थं च दिवोकसाम्।।
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व्यवसायो जयो धर्मः सिद्धिर्लक्ष्मीर्धृतिः स्मृतिः।
महासेनस्य सैन्यानामग्रे जग्मुर्नराधिप।।
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स तया भीमया देवः शुलमुद्गरहस्तया।
ज्वलितालातधारिण्या चित्राभरणवर्मया।।
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गदामुसलनाराचशक्तितोमरहरतया।
दृप्तसिंहनिनादिन्या विनद्य प्रययौ गुहः।।
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`तं दष्ट्वा सर्वदैतेया राक्षसा दानवास्तथा।
व्यद्रवन्त दिशः सर्वा भयोद्विग्नाः समन्ततः।।
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अभ्यद्रवन्त देवास्तान्विविधायुधपाणयः।
दृष्ट्वा च स ततः क्रुद्धः स्कन्दस्तेजोबलान्वितः।।
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शक्त्यस्त्रं भगवान्भीमं पुनःपुनरवाकिरत्।
आदधच्चात्मनस्तेजो हविषेद्ध इवानलः।।
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अभ्यस्यमाने शक्त्यस्त्रे स्कन्देनामिततेजसा।
उल्काज्वाला महाराज पपात वसुधातले।।
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संहादयन्तश्च तथा निर्घाताश्चापतन्क्षिपौ।
यथान्तकालसमये सुघोराः स्युस्तथा नृप।।
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क्षिप्ता ह्येका यदा शक्तिः सुघोराऽनलसूनुना।
ततः कोट्यो विनिष्पेतुः शक्तीनां भरतर्षभ।।
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ततः प्रीतो महासेनो जघान भगवान्प्रभुः।
दैत्येन्द्रं तारकं नाम महाबलपराक्रमम्।।
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वृतं दैत्यायुतैर्वीरैर्बलिभिर्दशभिर्नृप।
महिषं चाष्टभिः पद्मैर्वृतं सङ्ख्ये निजघ्निवान्।।
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त्रिपादं चायुतशतैर्जघान दशभिर्वृतम्।
हदोदरं निखर्वैश्च वृतं दशभिरीश्वरः।।
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जघानानुचरैः सार्धं विविधायुधपाणिभिः।
तथाऽकुर्वन्त विपुलं नादं वध्यत्सु शत्रुषु।।
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कुमारानुचरा राजन्पूरयन्तो दिशो दश।
ननृतुश्च ववल्गुश्च जहसुश्च मुदान्विताः।।
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शक्त्यस्त्रस्य तु राजेन्द्र ततोऽर्चिर्भिः समन्ततः।
त्रैलोक्यं त्रासितं सर्वं जृम्भमाणाभिरेव च।।
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दग्धाः सहस्रशो दैत्या नादैः स्कन्दस्य चापरे।
पताकयावधूताश्च हताः केचित्सुरद्विषः।।
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केचिद्धण्टारवत्रस्ता निषेदुर्वसुधातले।
केचित्प्रहरणैश्छिन्ना विनिष्पेतुर्गतायुषः।।
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एवं सुरद्विषोऽनेकान्बलवानाततायिनः।
जघान समरे वीरः कार्तिकेयो महाबलः।।
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बाणो नामाथ दैतेयो बलेः पुत्रो महाबलः।
क्रौञ्चं पर्वतमाश्रित्य देवसङ्घानबाधत।।
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तमभ्ययान्महासेनः सुरशत्रुमुदारधीः।
स कार्तिकेयस्य भयात्क्रौञ्चं शरणमीयिवान्।।
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ततः क्रौञ्चं महामन्युः क्रौञ्चनादनिनादितम्।
शक्त्या बिभेद भगवान्कार्तिकेयोऽग्निदत्तया।।
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ससालस्कन्धशबलं त्रस्तवानरवारणम्।
प्रोङ्कीनोद्धान्तविहगं विनिष्पतितपन्नगम्।।
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गोलाङ्गूलर्क्षसङ्घैश्च द्रवद्भिरनुनादितम्।
कुरङ्गमविनिर्घोषनिनादितवनान्तरम्।।
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विनिष्पतद्भिः शरभैः सिंहैश्च सहसा द्रुतैः।
शोच्यामपि दशां प्राप्तो रराजेव सपर्वतः।।
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विद्याधराः समुत्पेतुस्तस्य शृङ्गनिवासिनः।
किन्नराश्च समुद्विग्नाः शक्तिपातरवोद्धताः।।
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ततो दैत्या विनिष्पेतुः शतशोऽथ सहस्रशः।
प्रदीप्तात्पर्वतश्रेष्ठाद्विचित्राभरणस्रजः।।
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तान्निजघ्नुरतिक्रम्य कुमाराजुचरा मृधे।
स चैव भगवान्क्रुद्धो दैत्येन्द्रस्य सुतं तदा।।
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सहानुजं जघानाशु वृत्रं देवपतिर्यथा।
बिभेद क्रौञ्चं शक्त्या च पावकिः परवीरहा।।
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बहुधा चैकधा चैव कृत्वाऽऽत्मानं महाबलः।
शक्तिः क्षिप्ता रणे तस्य पाणिमेति पुनः पुनः।।
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एवम्प्रभावो भगवांस्ते भूयश्च पावकिः।
शौर्याद्द्विगुणयोगेन तेजसा यशसा श्रिया।।
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क्रौञ्चस्ते विनिर्भिन्नो दैत्याश्च शतशो हताः।। 9-47-94a
ततः स भगवान्देवो निहत्य विबुधद्विषः।
सभाज्यमानो विबुधैः परं हर्षमवाप ह।।
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ततो दुन्दुभयो राजन्नेदुः शङ्खाश्च भारत।
मुमुचुर्देवयोषाश्च पुष्पवर्षमनुत्तमम्।
योगिनामीश्वरं देवं शतशोऽथ सहस्रशः।।
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दिव्यगन्धमुपादाय ववौ पुण्यश्च मारुतः।
गन्धर्वास्तुष्टुवुश्चैनं यज्वानश्च महर्षयः।।
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केचिदनं व्यवस्यान्ति पितामहसुतं प्रभुम्।
सनत्कुमारं सर्वेषां ब्रह्मयोनिं तमग्रजम्।।
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केचिन्महेश्वरसुतं केचित्पुत्रं विभावसोः।
उमायाः कृत्तिकानां च गङ्गायाश्च वदन्त्युत।।
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एकधा च द्विधा चैव चतुर्धा च महाबलम्।
योगिनामीश्वरं देवं शतशोऽथ सहस्रशः।।
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एतत्ते कथितं राजन्कार्तिकेयाभिषेचनम्।
शृणु चैव सरस्वत्यास्तीर्थवंशस्य पुण्यताम्।।
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बभूव तीर्थप्रवरं हतेषु सुरशत्रुषु।
कुमारेण महाराज त्रिविष्टपमिवापरम्।।
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ऐश्वर्याणि च तत्रस्थो ददावीशः पृथक्पृथक्।
ददौ नैर्ऋतमुख्येभ्यस्त्रैलोक्यं पावकात्मजः।।
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एवं स भगवांस्तस्मिंस्तीर्थे दैत्यकुलान्तकः।
अभिषिक्तो महाराज देवसेनापतिः सुरैः।।
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औशनं नाम तत्तीर्थं यत्र पूर्वमपाम्पतिः।
अभिषिक्तः सुरगणैर्वरुणो भरतर्षभ।।
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अस्मिंस्तीर्थवरे स्नात्वा स्कन्दं चाभ्यर्च्य लाङ्गली।
ब्राह्मणेभ्योददौ रुक्मं वासांस्याभरणानि च।।
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उषित्वा रजनीं तत्र माधवः परवीरहा।
पूज्यतीर्थवरं तच्च स्पृष्ट्वा तोयं च लाङ्गली।।
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हृष्टः प्रीतमनाश्चैव ह्यभवन्माधवोत्तमः।
एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।।
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यथाऽभिषिक्तो भगवान्स्कन्दो देवैः समागतैः।
`सेनानीश्च कृतो राजन्बाल एव महाबलः'।।
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।। इति श्रीमन्महाभारते शल्यपर्वणि
ह्रदप्रवेशपर्वणि सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।। 47 ।।

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