महाभारतम्-02-सभापर्व-022
Jump to navigation
Jump to search
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.
कृष्णजरासन्धयोर्विवादानन्तरं जरासन्धस्य युद्धोद्यमः।। 1।।
जरासन्ध उवाच। | 2-22-1x |
न स्मरामि कदा वैरं कृतं युष्माभिरित्युत। चिन्तयंश्च न पश्यामि भवतां प्रति वैकृतम्।। | 2-22-1a 2-22-1b |
वैकृते वा सति कथं मन्यध्वं मामनागसम्। अरिं वै ब्रूत हे विप्राः सतां समय एष हि।। | 2-22-2a 2-22-2b |
अर्थधर्मोपघाताद्धि मनः समुपतप्यते। योऽनागसि प्रसजति क्षत्रियो हि न संशयटः।। | 2-22-3a 2-22-3b |
अतोऽन्यथा चरँल्लोके धर्मज्ञः सन्महारथः। वृजिनां गतिमाप्नोति श्रेयसोऽप्युपहन्ति च।। | 2-22-4a 2-22-4b |
त्रैलोक्ये क्षत्रधर्मो हि श्रेयान्वै साधुचारिणाम्। नान्यं धर्मं प्रशंसन्ति ये च धर्मविदो जनाः।। | 2-22-5a 2-22-5b |
तस्य मेऽद्य स्थितस्येह स्वधर्मे नियतात्मनः। अनागसं प्रजानां च प्रमादादिव जल्पथ।। | 2-22-6a 2-22-6b |
कृष्ण उवाच। | 2-22-7x |
कुलकार्यं महाबाहो कश्चिदेकः कुलोद्वहः। वहते यस्तन्नियोगाद्वयमभ्युद्यतास्त्वयि।। | 2-22-7a 2-22-7b |
त्वया चोपहृता राजन्क्षत्रिया लोकवासिनः। तदागः क्रूरमुत्पाद्य मन्यसे किमनागसम्।। | 2-22-8a 2-22-8b |
राजा राज्ञः कथं साधून्हिंस्यान्नृपतिसत्तम। तद्राज्ञः सन्निगृह्य त्वं रुद्रायोपजिहीर्षसि।। | 2-22-9a 2-22-9b |
अस्मांस्तदेनोपगच्छेत्कृतं बार्हद्रथ त्वया। वयं हिं शक्ता धर्मस्य रक्षणे धर्मचारिणः।। | 2-22-10a 2-22-10b |
`तस्मादद्योपगच्छामस्तव बार्हद्रथान्तिकम्'। मनुष्याणां समालम्भो न च दृष्टः कदाचन। स कथं मानुषैर्देवं यष्टुमिच्छसि शङ्करम्।। | 2-22-11a 2-22-11b 2-22-11c |
सवर्णो हि सवर्णानां पशुसञ्ज्ञां करिष्यसि। कोऽन्यं एवं यथा हि त्वं जरासन्ध वृथामतिः।। | 2-22-12a 2-22-12b |
यस्यां यस्यामवस्थायां यद्यत्कर्म करोति यः। तस्यां तस्यामवस्थायां तत्फलं समवाप्नुयात्।। | 2-22-13a 2-22-13b |
ते त्वां ज्ञातिक्षयकरं यममार्तानुसारिणः। ज्ञातिवृद्धिनिमित्तार्थं विनिहन्तुमिहागताः।। | 2-22-14a 2-22-14b |
नास्ति लोके पुमानन्यः क्षत्रियोष्विति चैव तत्। मन्यसे स च ते राजन्सुमहान्बुद्धिविप्लवः।। | 2-22-15a 2-22-15b |
को हि जानन्नभिजनमात्मवान्क्षत्रियो नृप। नाविशेत्स्वर्गमतुलं रणानन्तरमव्ययम्।। | 2-22-16a 2-22-16b |
स्वर्गं ह्येव समास्थाय रणयज्ञेषु दीक्षिताः। जयन्ति क्षत्रिया लोकांस्तद्विद्धि मनुजर्षभ।। | 2-22-17a 2-22-17b |
स्वर्गयोनिर्महद्ब्रह्म स्वर्गयोनिर्महद्यशः। स्वर्गं योनिस्तपो युद्धे मृत्युः सोऽव्यभिचारवान्।। | 2-22-18a 2-22-18b |
एष ह्यैन्द्रो वैजयन्तो गुणैर्नित्यं समाहितः। येनासुरान्पराजित्य जगत्पाति शतक्रतुः।। | 2-22-19a 2-22-19b |
स्वर्गमार्गाय कस्य स्याद्विग्रहो वै यथा तव। मागधैर्विपुलैः सैन्यैर्बाहुल्यबलदर्पितः।। | 2-22-20a 2-22-20b |
माऽवमंस्थाः परान्राजन्नास्ति वीर्यं नरे नरे। समं चेजस्त्वया चैव विशिष्टं वा नरेश्वर।। | 2-22-21a 2-22-21b |
यावदेतदसम्बुद्धं तावदेव भवेत्तव। विषह्यमेतदस्माकमतो राजन्ब्रवीमि ते।। | 2-22-22a 2-22-22b |
जहि त्वं सदृशेष्वेव मानं दर्पं च मागध। मा गमः ससुतामात्यः सबलश्च यमक्षयम्।। | 2-22-23a 2-22-23b |
दम्भोद्भवः कार्तवीर्य उत्तरश्च बृहद्रथः। श्रेयसो ह्यवमत्येह विनेशुः सबला नृपाः।। | 2-22-24a 2-22-24b |
युयुक्षमाणास्त्वत्तो हि न वयं ब्राह्मणा ध्रुवम्। शौरिरस्मि हृषीकेशो नृवीरौ पाण्डवाविमौ। अनयोर्मातुलेयं च कृष्णं मां विद्धि ते रिपुम्।। | 2-22-25a 2-22-25b 2-22-25c |
त्वामाह्वयामहे राजन्स्थिरो युध्वस्व मागध। मुच्छ वा नृपतीन्सर्वान् गच्छ वा त्वं यमक्षयम्।। | 2-22-26a 2-22-26b |
`वैशम्पायन उवाच।। | 2-22-27x |
एतच्छ्रुत्वा जरासन्धः क्रुद्धो वचनमब्रवीत्।। | 2-22-27a |
नाहं कंसः प्रलम्बो वा न बाणो न च मुष्टिकः। नरको नेन्द्रतपनो न केशी न च पूतना।। | 2-22-28a 2-22-28b |
न कालयवनो वाऽपि ये त्वया निहता युधि। त्वं तु गोपकुलोत्पन्नो जातिं वै पौर्विकीं स्मर।। | 2-22-29a 2-22-29b |
योऽस्मद्भयादतिक्रम्य सागरानूपमाश्रितः। जन्मभूमिं परित्यज्य मधुरां प्राकृतो यथा।। | 2-22-30a 2-22-30b |
सोऽधुना कत्थसे शौरे शरदीव यथा घनः। अद्यानृण्यं करिष्यामि भोजराजस्य धीमतः।। | 2-22-31a 2-22-31b |
जामातुरौग्रसेनस्य त्वां निहत्याद्य माधव। चिरकाङ्क्षितो मे सङ्ग्रामस्त्वां हन्तुं समुहृद्गुणम्।। | 2-22-32a 2-22-32b |
दिष्ट्या मे सफलो यत्नः कृतो देवैः सवासवैः। क्लीबाविमौ च गोविन्द भीमसेनार्जुनावुभौ।। | 2-22-33a 2-22-33b |
हिंस्यासि युधि विक्रम्य सिंहः क्षुद्रमृगाविव। | 2-22-34a |
वैशम्पायन उवाच।। | 2-22-34x |
तस्य रोषाभिभूतस्य जरासन्धस्य गर्जतः।। | 2-22-34b |
सर्वभूतानि वित्रेमुषे तत्रासन्समागताः। | 2-22-35a |
श्रीभगवानुवाच।। | 2-22-35x |
किं गर्जसि जरासन्ध कर्मणा तत्समाचर।। | 2-22-35b |
मम निर्देशकर्तृभ्यां पाण्डवाभ्यां नृपाधम। मात्यं ससुतं चाद्य घातयिष्याम्यहं रणे। न कथञ्चन जीवन्वै प्रवेक्ष्यसि पुरोत्तमम्'।। | 2-22-36a 2-22-36b 2-22-36c |
जरासन्ध उवाच। | 2-22-37x |
नाजितान्वै नरपतीनहमादद्मि काश्चन। अजितः पर्यवस्थाता कोऽत्र यो न मया जितः।। | 2-22-37a 2-22-37b |
क्षत्रियस्यैतदेवाहुर्धर्म्यं कृष्णोपजीवनम्। विक्रम्य वशमानीय कामतो यत्समाचरेत्।। | 2-22-38a 2-22-38b |
देवातार्थमुपाहृत्य राज्ञः कृष्ण कथं भयात्। अहमद्य विमुच्येयं क्षात्रं व्रतमनुस्मरन्।। | 2-22-39a 2-22-39b |
सैन्यं सैन्येन व्यूढेन एक एकेन वा पुनः। द्वाभ्यां त्रिभिर्वा योत्स्येऽहं युगत्पृथगेव वा।। | 2-22-40a 2-22-40b |
वैशम्पाय उवाच। | 2-22-41x |
एवमुक्त्वा जरासन्धः सहदेवाभिषेचनम्। अज्ञापयत्तदा राजा ययुत्सुर्भीमकर्मभिः।। | 2-22-41a 2-22-41b |
स तु सेनापतिं राजा सस्मार भरतर्षभ। कौशिकं चित्रसेनं च तस्मिन्युद्ध उपस्थिते।। | 2-22-42a 2-22-42b |
ययोस्ते नामनी राजन्हंसेति डिबिकेति च। पूर्वं सङ्कथिते पुम्भिर्नृलोके लोकसत्कृते।। | 2-22-43a 2-22-43b |
तं तु राजन्विभुः शौरी राजानं बलिनां वरम्। स्मृत्वा पुरुषशार्दूलः शार्दूलसमविक्रमम्।। | 2-22-44a 2-22-44b |
सत्यसन्धो जरासन्धं भुवि भीमपराक्रमम्। भागमन्यस्य निर्दिष्टमवध्यं मधुर्भिर्मृधेः।। | 2-22-45a 2-22-45b |
नात्मनाऽऽत्मवतां मुख्य इयेष मधुसूदनः। ब्राह्मीमाज्ञां पुरस्कृत्य हन्तुं हलधरानुजः।। | 2-22-46a 2-22-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि जरासन्धवधपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः।। 2।। |
2-22-45 मधुभिर्यादवैः। ष्टं वध्य मत्वा तदाच्युतः इति पाठः।।